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मुक्तक: अक्श
आधार छंद– हरिगितिका छंद
मापनी– 2212 2212 2212 2212
क्यों बादलों में अक्श अक्सर बन रहे अनजान से।
कोई लगे है देवता तो कुछ लगे शैतान से।
ये भावनाओं का भँवर बनता बिगड़ता है कभी।
जो खो गए अपने कहीं फिर माँग लूँ भगवान से॥
Dinesh Pandey
© दिनेश कुशभुवनपुरी
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