पावस ऋतु का अंत प्रिय,सिहरन सद्य समीप।
मकरंदित मधु मथत मन,मादक मदन महीप।।
मादक मदन महीप, मधुरतम मोहक माया।
क्षिति छलकत छल क्षुद्र,क्षत्र क्षैतिज छू छाया।।
कहें 'भ्रमर' कवि अज्ञ,घिरी घनघोर अमावस।
पथिक पंथ पाथेय,प्रीति प्रतिपालक पावस।।
©Dr Virendra Pratap Singh Bhramar
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