White मानस के दरख्त पर, विचार के हरे पत्ते
अक्सर मुस्कुराते, खिलखिलाते,झूमते मगर
मौसम के थपेड़ों से, खो देते है वो रंग अपना
चढ़ता पित वर्ण उनपर,सिकुड़कर सूख जाते वे
बिखर जाते जमीं पर फिर,आहिस्ता - आहिस्ता
और जरा देर तक फिर वे, तकते उन दरख्तों को
जिसे थाम कर गुजारे है, ग्रीष्म ,शरद और बसंत
फिर पतझड़ के झरोखों से, विस्थापित हुए वे सब
स्वतंत्र हो रहे हो ज्यों , हालात और संघर्ष के द्वंद से
मुक्त होता है त्यों अक्षर, कविता के सभी छंद से
सूखने लगते है ज़ब,विचार के हरे पत्ते
और चेतनाशून्य होती है मस्तिष्क,
तो धुंधली पड़ जाती है नयन की, पुतलियां अक्सर
कलम थम जाती पन्नों पर, लिखा जिसने कभी जीवन
नयन लाचार नम होते , हुआ करती जुवा भी मौन
मन के आईने की किरचियां बिखरी पड़ी भीतर
उन्हीं टुकड़ों में अब मौजूद बस रहता है सन्नाटा
तो उर के अतलस्पर्श तक, छा जाती निरवता
क्यूंकि अभिव्यक्ति के अभाव में भावावेग की सता
नियंत्रण तोड़कर,अक्सर दृगजल बन बरसती है
कविता सिमटी न पन्नों में,न स्याही से उभर पायी
न बंध पायी वो छंदों में, न अलंकारों से सवर पायी
गढ़ी गयी ये उर के भीतर, मढ़ी गयी भावनाओं से
अपरिमित स्वच्छंद रूप में,सवरी है कल्पनाओं से
की हर बात कहने भर से जाहिर हो न पाये गर
तो नेत्रों में छिपे अज्ञात से भी, बात होती है
यदि नीरवता भी चीत्कार भरने का, बना ले मन
तभी निशब्द की हर थाह से, मुलाकात होती है
तभी निशब्द की हर थाह से मुलाक़ात होती है
©Priya Kumari Niharika
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