इस समाज में व्याप्त सब जगह ये कैसी लाचारी है
भूख दर-बदर भटक रही खामोश हुई किलकारी है
नंगा बदन ढांकने को उनको परिधान नहीं मिलते
बेशकीमती वस्त्र लपेटे पुतले यहाँ खूब दिखते
गली- गली चौराहों पर हम ऐसे दृश्य देखते हैं
दूर से ही उन मासूमों की रोचक तस्वीर खींचते हैं
पर क्यूँ हम पास नहीं जाते उनका हाल जानने को
है उन्हें जरूरत रोटी की क्यूँ तैयार नहीं मानने को
क्या इतने संवेदनाहीन हुए सब बस खुद से ही मतलब है
अपनी खुदगर्जी का ख्याल रहे बाकी सब बेमतलब है
हम दौड़ रहे दिखावे में अपनी शान दिखाने को
जिन्दगियाँ मजबूर हुईं यहाँ पैसों मे बिक जाने को
जमींदार कहाने को मन्दिर में दान कराते हैं
परिसर के बाहर ही बच्चे खड़े हाथ फैलाते हैं
पत्थर की मूरत पे सज्जन सोने का मुकुट चढ़ाते हैं
असहाय कहीं टुकडों की खातिर तड़क-तड़प मर जाते हैं
ईश्वर का इन्हें भक्त कहूँ या मानवता का शत्रू
इनकी नेकशीलता का कब तक व्याख्यान करूं
जब भी कोई भूखों मर कर अपनी जान गंवाता है
इस सत्ता का हर एक नेता बस सहानुभूति दिखलाता है
इस हालत को देख-देखकर मेरा दिल भर आता है
ये मुफ़लिसी और अमीरी का ख्याल मुझे तड़पाता है
ये विचार ही कौंध -कौंध कर जेहन घायल कर जाते हैं
हाय विडम्बना कैसी ये हम कुछ भी ना कर पाते हैं
©Rashmi rati
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