सिर्फ प्रेम....
रामजी मिश्र 'मित्र'|
अब हाय पपिहरा बन बिलख रहा, हर बूंद गिराई इतर-उतर,
मैं चातक चाह तड़पता रहा, वह मचल रही हर बदली पर।
पा न सका तुमको पाकर भी, पर मेरा यह अपराध नहीं है।
फिर भी रिश्तों में श्रेष्ठ तुम्हीं हो, कहता मेरा प्रेम यही है।।
तन-मन जीवन सब अर्पित कर, याचक बन कुछ मांग रहा हूं,
बरसा दो वह प्रेम सुधा बदली, जिस हेतु प्रिये मैं तड़प रहा हूं।
दिखती हो हर पल तुम मुझको, फिर ऐसे क्यों ढूंढ रहा हूं।
यदि मैं निश्चल प्रेम पथिक हूं, तब कर्तव्यों से विमूढ़ कहां हूं।।
अब जीवन भी बसता तुम में, फिर कैसे मैं जी पाऊंगा,
अगर तड़प ऐसी ही भोगी तो सावन नहीं बिताऊंगा।
तो सावन नहीं बिताऊंगा... तो सावन नहीं बिताऊंगा...!
-राम जी मिश्र
©Ramji Mishra
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