White *उस पुराने मकान की सीढ़ियां* उस गली के एक म | हिंदी Poetry

"White *उस पुराने मकान की सीढ़ियां* उस गली के एक मकान में सीढ़ियां थीं, पुरानी, दरकती हुई। हम उन पर बैठे करते थे बातें, जिनमें ख्वाब होते थे, हंसी की सौगातें। मकान अब नया हो गया है, रंगीन दीवारें, चमचमाती छत। सीढ़ियां वहीं हैं, पर नई मार्बल की, उन पर बैठने का दिल नहीं करता। उस मकान की पुरानी दीवारों में दोस्ती की नमी बसी थी, अब दीवारें चटक सफेद हैं, पर हर कोने में वीरानी है। मेरा दोस्त जो वहां रहता था, संग बैठता, हंसता, जीता। अब उसकी यादें रह गई हैं, उन सीढ़ियों पर धुंधली छवि की तरह। मकान के अंदर रोशनी जगमग है, पर अंदर झांकने से डर लगता है। जहां पहले हंसी की गूंज थी, वहां अब चुप्पी का घर लगता है। कभी-कभी गुजरता हूं उस गली से, मन करता है सीढ़ियों पर बैठ जाऊं। पर किससे कहूं वो बातें अब? जिन्हें सुनने वाला नहीं रहा। उस मकान की सीढ़ियां नई हैं, पर उनकी आत्मा कहीं खो गई है। मेरा दोस्त ले गया अपनी रूह के साथ, वो सीढ़ियां, वो बातें, वो रात। अशोक वर्मा "हमदर्द" ©Ashok Verma "Hamdard""

 White *उस पुराने मकान की सीढ़ियां*

उस गली के एक मकान में
सीढ़ियां थीं, पुरानी, दरकती हुई।
हम उन पर बैठे करते थे बातें,
जिनमें ख्वाब होते थे, हंसी की सौगातें।

मकान अब नया हो गया है,
रंगीन दीवारें, चमचमाती छत।
सीढ़ियां वहीं हैं, पर नई मार्बल की,
उन पर बैठने का दिल नहीं करता।

उस मकान की पुरानी दीवारों में
दोस्ती की नमी बसी थी,
अब दीवारें चटक सफेद हैं,
पर हर कोने में वीरानी है।

मेरा दोस्त जो वहां रहता था,
संग बैठता, हंसता, जीता।
अब उसकी यादें रह गई हैं,
उन सीढ़ियों पर धुंधली छवि की तरह।

मकान के अंदर रोशनी जगमग है,
पर अंदर झांकने से डर लगता है।
जहां पहले हंसी की गूंज थी,
वहां अब चुप्पी का घर लगता है।

कभी-कभी गुजरता हूं उस गली से,
मन करता है सीढ़ियों पर बैठ जाऊं।
पर किससे कहूं वो बातें अब?
जिन्हें सुनने वाला नहीं रहा।

उस मकान की सीढ़ियां नई हैं,
पर उनकी आत्मा कहीं खो गई है।
मेरा दोस्त ले गया अपनी रूह के साथ,
वो सीढ़ियां, वो बातें, वो रात।

अशोक वर्मा "हमदर्द"

©Ashok Verma "Hamdard"

White *उस पुराने मकान की सीढ़ियां* उस गली के एक मकान में सीढ़ियां थीं, पुरानी, दरकती हुई। हम उन पर बैठे करते थे बातें, जिनमें ख्वाब होते थे, हंसी की सौगातें। मकान अब नया हो गया है, रंगीन दीवारें, चमचमाती छत। सीढ़ियां वहीं हैं, पर नई मार्बल की, उन पर बैठने का दिल नहीं करता। उस मकान की पुरानी दीवारों में दोस्ती की नमी बसी थी, अब दीवारें चटक सफेद हैं, पर हर कोने में वीरानी है। मेरा दोस्त जो वहां रहता था, संग बैठता, हंसता, जीता। अब उसकी यादें रह गई हैं, उन सीढ़ियों पर धुंधली छवि की तरह। मकान के अंदर रोशनी जगमग है, पर अंदर झांकने से डर लगता है। जहां पहले हंसी की गूंज थी, वहां अब चुप्पी का घर लगता है। कभी-कभी गुजरता हूं उस गली से, मन करता है सीढ़ियों पर बैठ जाऊं। पर किससे कहूं वो बातें अब? जिन्हें सुनने वाला नहीं रहा। उस मकान की सीढ़ियां नई हैं, पर उनकी आत्मा कहीं खो गई है। मेरा दोस्त ले गया अपनी रूह के साथ, वो सीढ़ियां, वो बातें, वो रात। अशोक वर्मा "हमदर्द" ©Ashok Verma "Hamdard"

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