अंतर्द्वंद की काली चादर ओढ़े, फिरते हम ख़ुद से ख़ु | हिंदी कविता

"अंतर्द्वंद की काली चादर ओढ़े, फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े जाने कितने भावों का बोझ सर पर रखकर हंसते रहते हरपल सबसे अपने शब्द सिकोड़े है समर यही कुरुक्षेत्र यहीं पार्थ मैं ही और दुर्योधन भी सकुनी भी मैं ही और भीष्म भी हैं कमी कहीं तो बस एक यही ना कृष्ण कहीं ना कर्ण कहीं सारे के सारे निर्णय ख़ुद ही ख़ुद को करने हैं हो सम्मुख कोई भी युद्ध स्वयं ही लड़ने हैं है प्रथम चुनौती बस इतनी ख़ुद को अडिग बना पाना गलत सही का निर्णायक मैं हूं ही नहीं फिर भी ख़ुद को सही साबित कर पाना शेष मौन का मुकुट शीश से जोड़े फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े ... ✍️ पं. शिवम् शर्मा ख़ुदरंग ✍️ ©Cwam Xharma"

 अंतर्द्वंद की काली चादर ओढ़े,
फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े
जाने कितने भावों का बोझ सर पर रखकर
हंसते रहते हरपल सबसे अपने शब्द सिकोड़े
है समर यही कुरुक्षेत्र यहीं
पार्थ मैं ही और दुर्योधन भी
सकुनी भी मैं ही और भीष्म भी
हैं कमी कहीं तो बस एक यही
ना कृष्ण कहीं ना कर्ण कहीं
सारे के सारे निर्णय ख़ुद ही ख़ुद को करने हैं
हो सम्मुख कोई भी युद्ध स्वयं ही लड़ने हैं
है प्रथम चुनौती बस इतनी
ख़ुद को अडिग बना पाना
गलत सही का निर्णायक मैं हूं ही नहीं
फिर भी ख़ुद को सही साबित कर पाना
शेष मौन का मुकुट शीश से जोड़े
फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े ...
                        ✍️ पं. शिवम् शर्मा ख़ुदरंग ✍️

©Cwam Xharma

अंतर्द्वंद की काली चादर ओढ़े, फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े जाने कितने भावों का बोझ सर पर रखकर हंसते रहते हरपल सबसे अपने शब्द सिकोड़े है समर यही कुरुक्षेत्र यहीं पार्थ मैं ही और दुर्योधन भी सकुनी भी मैं ही और भीष्म भी हैं कमी कहीं तो बस एक यही ना कृष्ण कहीं ना कर्ण कहीं सारे के सारे निर्णय ख़ुद ही ख़ुद को करने हैं हो सम्मुख कोई भी युद्ध स्वयं ही लड़ने हैं है प्रथम चुनौती बस इतनी ख़ुद को अडिग बना पाना गलत सही का निर्णायक मैं हूं ही नहीं फिर भी ख़ुद को सही साबित कर पाना शेष मौन का मुकुट शीश से जोड़े फिरते हम ख़ुद से ख़ुद का मुख मोड़े ... ✍️ पं. शिवम् शर्मा ख़ुदरंग ✍️ ©Cwam Xharma

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