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थी आरज़ू कभी कू -ए- यार के निदा की
इस शहर जादे के सर-खुश यार के मक़ा की
अब जो है वो नहीं अब तो तर्क रहते होंगे
बा -खूब जानते हैं वो यार के समा की
ख्वाहिश कभी नहीं कि मंसूब की अता हो
कुछ तो खबर रही होगी यार के वफ़ा की
पूछा बहाल -ए- खिल का हाले नालां का भी
मारोज़ -ए- बयां क्या है यार के नज़ा की
निस्बत उन्हें ना थी जो हम शौक़ रखते उनका
वो ख्वाब नज़रो में ना थे यार के निहा की
क्या है "जुबैर"दो पल का शौक़-ए-नज़ारा
ये बात उनको कहना ये यार के सज़ा की
लेखक - ज़ुबैर खान.......✍️
©SZUBAIR KHAN KHAN
gazal