मैने बेतहाशा उसे चाहा, जो मेरा ना हो सका
सो अब दिन तो गुजर जाते हैं दुनियादारी में, रातों को इस सीने में बड़ी जलन होती है।
झूठी हंसी का नकाब पहने घूम आया हूं जमाने भर में
दात दी जाती हैं मेरी हंसी की अदा की, किसे खबर उसके पीछे कितनी जलन होती है।
उसको भुलाने के लिए खेला एक के बाद एक दहकते बदन से
पता है ना पीठ पर नाखून लग जाये तो कितनी जलन होती है।
और स्वाभीमान के सिवा दुनिया का कोई खजाना नहीं मेरे पास
ना जाने क्यों फिर जमाने को इस गरीब से इतनी जलन होती है।
©सुधांशु गौतम