दो समय की रोटी के लिए दिन-रात मेहनत करता हूं
फिर भी सबका पेट नही भर पाता हूं
टूटा छप्पर भी मुँह चिढ़कर पानी टपकाता है
और मैं(पिता)आँखो के आंसुओ को छुपा फिर से मेहनत पर जुट जाता हूँ
दर्द एक निर्धन पिता का शायद उस भगवान के सिवा कोई नहीं जानता
इस लिए भूखा उठाता तो है पर भूखा सुलाता नही
दो समय की रोटी के लिए दिन-रात मेहनत करता हूं फिर भी सबका पेट नही भर पाता हूं टूटा छप्पर भी मुँह चिढ़कर पानी टपकाता है और मैं(पिता)आँखो के आंसुओ को छुपा फिर से मेहनत पर जुट जाता हूँ दर्द एक निर्धन पिता का शायद उस भगवान के सिवा कोई नहीं जानता इस लिए भूखा उठाता तो है पर भूखा सुलाता नही