White जाने कौन सा रोग मेरे कविताओं को लगा है
शब्दों का एक कतरा जिस्म पर गिरते ही
कविताएँ अपने एक अंग को खा जाती है
मै एक कोने मे बैठ कर खूब रोती हूँ
और मेरे कविता के बहते नासूर से
फिर एक जिस्म तैयार होता है
हर बार हृदय काग़ज के आर पार
बैठा राहगीरो से दूर अपने जख्म
की तूरपाई मे कागज के सिलवटों
को नोच देता है
दर्द नासूर का नही, जिस्म का
नही काग़ज का होता
मौत तीनों को कैद करता है
रूह अकेला चित्कारता है
कविताएँ जहर या औषधि ही नही बनती
बाकी तीन खण्डों का मूलभूत अधिकार
जीवन - मरण तक स्थापित कर चुकी होती है
©चाँदनी
#रोग