आजकल उसका मेरा रिश्ता।
बड़ा formal सा हो गया है।
कैसे हो और सब कैसे हैं।
जैसे और कोई बात नही बची।
मगर फिर भी जताया जा रहा है
मुझे फिक्र है तुम्हारी।
इस फिक्र में अपनेपन से जायदा।
एक जबरदस्ती सी झलकती है।
ये बताने को अब भी हम वैसे ही है।
मगर क्या सच में ही वैसे ही है।
नही अब अपनेपन का हक सा।
नजर नही आता तुम्हारी बातो में।
एक खाना पूर्ति पूरी कर रही हो जैसे।
अब लगता है वो दौर आयेगा भी नही
जहा हक जताने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
वक्त बेवक्त अनजाने में होती थी सब बाते।
हो सकता है वक्त के सब कुछ बदल जाता हो।
या हमारा नजरिया बदल जाता हो।
मगर वो अपनापन वो गुजरे लम्हे।
कही ना कही चिढ़ाते रहते हैं मन को।
और हम अपने दिल को झूठी तसल्ली देते हैं।
नहीं कुछ नही बदला।
जो वाक्य में ही बदल चुका होता है।
देर सवेर ये दौर सबकी जिंदगी में भी आता है।
ये हम पर निर्भर करता है।
हम सच्चाई को स्वीकार करते हैं।
या नजरंदाज करते हैं ।
#अनुराज
©Anuraag Bhardwaj
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