sunset nature
अक्स था जिनका छलकते हुए पैमानों में
साकिया अब वो बहारें नहीं मैंखानों में
खेल था जिसके लिए कोहकनी ऐ हमदम
आज वो जोशे जुनूं ही नहीं दीवानों में
कोई भंवरा नजर आता नहीं मंडराता हुआ
उफ़! बहार आई है कैसी ये गुलिस्तानों में
आह ये वक्त की जिन पर था भरोसा मंजर
वो यगाने भी नजर आते हैं बेगानों में
बृजेश मेहता
©brijesh mehta