green-leaves क्यों नहीं मना पाता हूं गर रूठ जाती | हिंदी Poetry

"green-leaves क्यों नहीं मना पाता हूं गर रूठ जाती हो तो? क्यों नहीं बता पाता कुछ भी? सोचा है? अपने सारे भय, समस्याएं अकेले जीता हूं! सारे कड़वे घूंट अकेले ही पीता हूं। भय लगता है, की क्या सोचोगी मेरे बारे में! डरता हूं उस हेय दृष्टि से मेरे पास अहम नहीं है, भय है। जो हो सकेगा तो न दिखेगा, भ्रम है। चलो मान लिया मैं गलत हूँ, पर अब क्या? हर लड़ाई में अलग होने को बोल देती हो! यही प्रेम है तेरा! आती नहीं लज्जा? मेरे हृदय को जो सहस्त्रों बार तार तार किया! उसकी कौन करेगा भरपाई, सोचा है? इतना मत ढकेलो मुझे की उठ ही न पाऊं। प्रेम के नाम से ही कांपने लगूं, बस ऐसे ही अकेला रह जाऊं। एक ही बात तो हजारों बार बोला है , शायद हजार बार और बोल पाऊं। ऐसे दूर करोगी तो लगता है भीख में प्रेम दिया है। इससे बेहतर तो अकेले ही मर जाऊं। ©mautila registan(Naveen Pandey)"

 green-leaves 

क्यों नहीं मना पाता हूं गर रूठ जाती हो तो?
क्यों नहीं बता पाता कुछ भी? सोचा है?
अपने सारे भय, समस्याएं अकेले जीता हूं!
सारे कड़वे घूंट अकेले ही पीता हूं।

भय लगता है, की क्या सोचोगी मेरे बारे में!
डरता हूं उस हेय दृष्टि से 
मेरे पास अहम नहीं है, भय है।
जो हो सकेगा तो न दिखेगा, भ्रम है।

चलो मान लिया मैं गलत हूँ, पर अब क्या?
हर लड़ाई में अलग होने को बोल देती हो!
यही प्रेम है तेरा! आती नहीं लज्जा?
मेरे हृदय को जो सहस्त्रों बार तार तार किया!
उसकी कौन करेगा भरपाई, सोचा है?

इतना मत ढकेलो मुझे की उठ ही न पाऊं।
प्रेम के नाम से ही कांपने लगूं, बस ऐसे ही अकेला रह जाऊं।
एक ही बात तो हजारों बार बोला है , शायद 
हजार बार और बोल पाऊं।
ऐसे दूर करोगी तो लगता है भीख में प्रेम दिया है।
इससे बेहतर तो अकेले ही मर जाऊं।

©mautila registan(Naveen Pandey)

green-leaves क्यों नहीं मना पाता हूं गर रूठ जाती हो तो? क्यों नहीं बता पाता कुछ भी? सोचा है? अपने सारे भय, समस्याएं अकेले जीता हूं! सारे कड़वे घूंट अकेले ही पीता हूं। भय लगता है, की क्या सोचोगी मेरे बारे में! डरता हूं उस हेय दृष्टि से मेरे पास अहम नहीं है, भय है। जो हो सकेगा तो न दिखेगा, भ्रम है। चलो मान लिया मैं गलत हूँ, पर अब क्या? हर लड़ाई में अलग होने को बोल देती हो! यही प्रेम है तेरा! आती नहीं लज्जा? मेरे हृदय को जो सहस्त्रों बार तार तार किया! उसकी कौन करेगा भरपाई, सोचा है? इतना मत ढकेलो मुझे की उठ ही न पाऊं। प्रेम के नाम से ही कांपने लगूं, बस ऐसे ही अकेला रह जाऊं। एक ही बात तो हजारों बार बोला है , शायद हजार बार और बोल पाऊं। ऐसे दूर करोगी तो लगता है भीख में प्रेम दिया है। इससे बेहतर तो अकेले ही मर जाऊं। ©mautila registan(Naveen Pandey)

#selfishlove

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