हॉस्पिटल में चार दिन एडमिट हुई तो जिन्दगी की कीमत समझ आने लगी , मौत को करीब आते देख रही थी , मन जिन्दगी और बीमारियों से घिरी काया को सिलने में लगी हुई थी .....
. जिन्दगी के दो साल 2022 और 2024 कहर बन कर टूटे
कुएँ से निकली तो खाई में जा गिरी 2022 कुआँ था और 2024 खाई जिन्दगी जीना चुनौती लगने लगा , निराशा इस कदर मन में घर कर गई की दम घुटने लगा था पर जिन्दगी के मुश्किल दौर में जिस तरह मेरे अपनों ने परिवार दोस्त सबने मिलकर जिस तरह संभाला मैं सब को
सबके उस साथ को ,मेरे चेहरे पर हंसी लाने के हर उस प्रयास को कभी नहीं भूल पाऊँगी ..... जहाँ दर्द से शरीर तो करहरा रहा था ,चीखें निकल रही थी...
पर दिल को सुकून था कि कोई है जो मेरी सलामती की दुआएँ माँग रहा है , दोस्त और परिवार रिश्ते दार तो फिर भी अपने होते है ,
पर जब मैंनें उस पहलू को भी देखा जहाँ जिन्दगी से हारता , बीमारियों से घिरा हर शख्स अनजान जब आपके पास बैठता है अपने दर्द को खुद में समेटे आप से अपना दर्द साझा करता है , आपके दु : ख दर्द को समझता है तब दुनिया की सारी बुराईयाँ , कलयुगी इंसान ये शब्दावली सब झूठ लगने लगता है अहसास होता है कि इंसानियत मरती नहीं है बस हमें ही आदत हो गई जिन्दगी के एक अंधेरे पक्ष को देखते रहने और हर पल कोसते रहने की ।
उदाहरण उस वक्त का तो.....
अब माँ तो माँ होती है अपनी या पराई नहीं एक अनुभव ऐसा भी था या , मैं डरी सी सहमी सी , मुरझाई सी बैठी हुई ...
पास में बैठी एक औरत मुझे देख बस बिना सवाल किए , मेरे ठण्डे पड़े हाथों को अपने नम्र मुलायम हाथों की गर्मी से पकड़कर बैठ गई इतना ही नहीं मेरे पैरों को भी अपने नीचे दबा लिया कुछ देर बस यूँ ही मुझे अपनी बच्ची समझकर प्रेम का वो
स्पर्श देती रही , यूँ तो पास में उस वक्त मेरे अपनी मम्मी पापा भी बैठे हुए थे पर एक अनजान मुस्लिम औरत का वो प्रेम पूर्ण स्पर्श उस वक्त जो अहसास करा रहा था शायद बता ना पाऊं....
देश में फैली धर्म और जाति जैसी क्रूरता.... काश मैं समझा पाती उस अनुभव को जो सिर्फ इंसानियत समझता है .. अपना पराया धर्म खून या जाति नहीं...
©Timsi thakur