शरीर मे उभरती नसे, झुर्रियों मे सिमटती त्वचा काश द | हिंदी कविता Video

"शरीर मे उभरती नसे, झुर्रियों मे सिमटती त्वचा काश देखते हम? सार्वभौंम है ये जो ईश्वर ने रचा तो अहं से बच जाते शायद! रोशनी खोती आँखें रंग बदलते केश छलावे से हटकर जब देखते निर्नीमेष तो अहं से बच जाते शायद! इन्द्रियों मे मोहग्रस्त स्वाद से अतृप्त उदर ये मृगतृष्णा का जाल जो आया होता नजर तो अहं से बच जाते शायद! उतरे होते जो हम खोल कभी मन के द्वार, होते ना हम कभी संशय के शिकार तो अहं से बच जाते शायद ©Kamlesh Kandpal "

शरीर मे उभरती नसे, झुर्रियों मे सिमटती त्वचा काश देखते हम? सार्वभौंम है ये जो ईश्वर ने रचा तो अहं से बच जाते शायद! रोशनी खोती आँखें रंग बदलते केश छलावे से हटकर जब देखते निर्नीमेष तो अहं से बच जाते शायद! इन्द्रियों मे मोहग्रस्त स्वाद से अतृप्त उदर ये मृगतृष्णा का जाल जो आया होता नजर तो अहं से बच जाते शायद! उतरे होते जो हम खोल कभी मन के द्वार, होते ना हम कभी संशय के शिकार तो अहं से बच जाते शायद ©Kamlesh Kandpal

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