उसकी सूरत मेरे दिल से उतरती रही ,
मुझसे किये वादों से वो मुकरती रही।
लगा के मुझे ये श्रृंगार रस है मेरे लिए ,
पर रक़ीब के लिए सजती-सँवरती रही
छोड़ा उसने मुझे किसी और कि ख़ातिर ,
काँच की तरह टूट के रोज़ बिखरती रही।
अक्सर जहाँ मिला करते थे हम दोनों ,
अब उन सभी गलियोंसे वो गुज़रती रही।
जहाँ से उसे दिखे मुझ गरीब का ख़ाना ,
गली के चौराहें पर घंटो वो ठहरती रही।
©आराधना
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