उसका दमन, तिरस्कार
उसकी यंत्रणा
उतनी ही प्राचीन है
जितना कि पारिवारिक जीवन का इतिहास ।
असंगत और मन्द प्रक्रिया में
उसने हिंसा को हिंसा की दृष्टि से
देखा ही नहीं कभी
वह स्वयं भी हिंसा से इंकार करती है
धार्मिक मूल्य और सामाजिक दृष्टि का बोझ
उसके कंधे पर रख दिया गया ।
'आक्रमण ', 'बल' , 'उत्पीड़न 'के
चक्रव्यूह में फँसती चली गई
उसने सहे आघात पर आघात
धकेल दिया गया
उसकी भावनाओं को भीतर
ज़बरन उससे छीन ली गई
उसकी स्वेच्छा ।
वह पूछती है कौन हैं वे अपराधी
अपराधियों को अपराध करने की प्रेरणा
कहाँ से मिलती है ?
इन्हें रोकने के उपाय किसके वश में हैं ?
©Dr.asha Singh sikarwar
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