इधर जाते हैं ना उधर जाते हैं,
हर तरफ वो ही नज़र आते हैं।
कमाने जो निकल जाते घर से,
मौत से भी नहीं वो घबराते हैं।
ज़ख्म पे ज़ख्म चाहे लगता रहें,
दर्द सारा हँसी में ही छिपाते हैं।
ग़म की बदली न छाये परिवार में,
ये सोच कर तूफ़ानो से टकराते हैं।
अपने सपन सारे तोड़ कर 'उजाला',
ये ज़िंदगी को मुस्कुराना सिखाते हैं।
©अनिल कसेर "उजाला"
पिता