White ज़िन्दगी पूछती है ज़िन्दगी जियोगे कब।
स्वाद इस ज़िन्दगी की मौज का चखोगे कब।
ऊम्र अपनी बिता रहे हो फंँस के उलझन में -
आसमाँ पर उड़ानें सपनों की भरोगे कब।
आप खुद से बताओ यार अब मिलोगे कब।
क़ैद कर रखा है खुद को जो तुम खुलोगे कब।
पालते हो क्यूँ दिल में ग़म उदास रहते हो-
रंग जीवन में अपने खुशियों की भरोगे कब।
जी रहे हो घुटन में खुल के साँस लोगे कब।
दुःख के दुश्मन को हौसलों से मात दोगे कब।
कुछ नहीं मिलता है औरों के लिए जीने से-
हो चुके सब के बहुत अपने बता होगे कब।
रिपुदमन झा 'पिनाकी'
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक
©रिपुदमन झा 'पिनाकी'
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