सोचता हूँ कभी कि शहर चला जाऊँ, गाँव घर पे ढहा | हिंदी शायरी

"सोचता हूँ कभी कि शहर चला जाऊँ, गाँव घर पे ढहा के कहर चला जाऊँ। मगर! आंगन में मैंने जो पाले हैं पालतू, कैसे? उन्हें पिला कर ज़हर चला जाऊँ। ©एस पी "हुड्डन""

 सोचता  हूँ  कभी  कि शहर चला जाऊँ,
गाँव घर  पे  ढहा  के  कहर चला जाऊँ।
मगर! आंगन  में मैंने जो पाले हैं पालतू,
कैसे? उन्हें पिला कर ज़हर चला जाऊँ।

©एस पी "हुड्डन"

सोचता हूँ कभी कि शहर चला जाऊँ, गाँव घर पे ढहा के कहर चला जाऊँ। मगर! आंगन में मैंने जो पाले हैं पालतू, कैसे? उन्हें पिला कर ज़हर चला जाऊँ। ©एस पी "हुड्डन"

#गाँव_शहर

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