सुना है तेरे शहर में भी एक चाँद निकलता हैं,
लेकिन क्या पता है तुम्हें उसकी चाँदनी का चकोर भी हमसा ही कोई होता है,
दुर्मद जो हो तुम गुलशन में तेरे मधुमास की चंन्द्रमल्लीका का सौरभ चतुर्दिक फैलता हैं,
उसका मृदुवात भी हमारे मदिर स्मित-भास्वर से ही होता हैं,
तुझसे जो प्रेम था अविरल,
ये जो तेरे मन के कुलिस सार्थवाहों ने,
मेरे रजत-स्वप्नों का उन्मान लगाया,
उर्ध्व तितिक्षा ने मेरे ये भी अंगीकार किया,
जब इस मुग्ध-प्रेम पर तुमनें खुद ही अन्चिन्हा अवार है चढ़ाया,
फिर तेरे प्रेम-विग्रह पर संशय कैसा,
फिर तुझसे प्रतिकार क्या।
©सिन्टु सनातनी "फक्कड़ "
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