Divine love
_चेतना से परे एक सोच..
_आरंभ से अनंत तक का सफ़र...
_आकर्षण से उपजा किंतु विलीनता में समाहित..
_सहर्ष ही स्वीकार्य हो किंतु छोड़ना मुश्किल..
_अवचेतन मन में ठहराव लिए चेतन मन को स्पर्श करता हुआ अहसास,
_लगाव है परंतु भयभीत होने से परे,
_आत्मा से आत्मा का जुड़ाव,
_लालच, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, से विशुद्ध सागर की गहराई जितना
_मेघ गर्जन किंतु बारिश की बूंदों से धरा को मिलती ठंडक
_अवसाद से ग्रसित परंतु प्रेम की छुवन से राहत
_कहीं क्यों न जाए पर नजर आए वही चाहत
_चाहे मन व्यथित हो या आहत
_लगन ऐसी के छूटे नहीं
_रहन सहन चाहें जैसा हो किंतु साथ टूटे नहीं
_प्रेम अगर दर्पण है तो उसमें झलकता अंश हो तुम्हारी
परछाई
_चाहें उसमे कितनी ही हो बुराई या अच्छाई
_जो प्रेम है तो निष्कपट भाव से प्रेम करें
_ अध्यात्म पर आ ठहरे
_प्रेम ही तो है जो भाव-विभोर करे
_चाहें मिले ना मिले प्रेम, पर मीरा बन स्वयं को हरी को अर्पण करे
_ना लोक-लाज का ध्यान रहे, ना डरे
_सीता सा त्याग और राधा सा मन रहे
_व्याकुलता सा भाव जगे
_हो धूप चाहे जीवन में फिर भी नीर लगे
_रूखी सूखी रोटी खाकर भी क्षीर लगे
_दूसरों के सुख से घृणा ना हो अपनी पीर, पीर ना लगे
_ बाती दिये भीतर जले दिये में विलीन होय
ऐसे गर तुम हो जाओ तो क्यों न प्रेम होय,
©Neetu Sharma
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