मुसलसल बेकली दिल को रही
जीने की मगर सूरत भी नहीं
फिरता हूँ तन्हा मारा मारा
ख़िज़ाँ पत्तों में छुप कर रो रही
जले दिल से उम्मीद लिए मुसाफ़िर
जलकर कोठरी और काली हो रही
तुम समझोगे हुआ होगा शोर शराबा
और बस्ती चैन से क्यूँ सो रही
घर की दीवारों पे 'नासिर' लिख गए
उदासी बाल खोले सो रही
धूप ढली तो गम की आँख खुली
अब कौन तारीकियों से वाक़िफ़ हो
बग़ैर शम्म रात तलक अंधेरा रही
©SANAM.Raj