वो पीने से ही चढ़ती है नशा का दोष क्या देना? ज | हिंदी कविता

"वो पीने से ही चढ़ती है नशा का दोष क्या देना? जो मंजिल याद ही न हो पता का दोष क्या देना? कभी घायल हुए जुगनू से मत बोलो दिखा राहें पतंगा खुद जला है फिर दिया का दोष क्या देना!! खुदी बिगड़ा हूं उल्फत के नशीले दौड़ में मैं तो नहीं मां का कभी माना पिता का दोष क्या देना!! यहां गुल ही अड़ी नाहक न खिलने को हुई तत्पर जहां मौसम में सावन है धरा का दोष क्या देना!! मेरी किस्मत मेरे मुट्ठी में उसने कैद कर भेजा... न मुमकिन प्यार पाना है खुदा का दोष क्या देना!! हरेक अरमान के भट्टी में मैं जलता रहा दीपक कि अब खुद थक चुका हूं मैं हवा का दोष क्या देना।। ©दीपक झा रुद्रा"

 वो पीने से ही चढ़ती है नशा का  दोष   क्या  देना?
जो मंजिल याद ही न हो पता का  दोष क्या देना?

कभी घायल हुए जुगनू से मत  बोलो दिखा  राहें 
पतंगा खुद जला है फिर दिया का दोष क्या देना!!

खुदी बिगड़ा हूं उल्फत के नशीले दौड़  में   मैं  तो
नहीं मां का कभी माना पिता का दोष क्या   देना!!

यहां गुल ही अड़ी नाहक न  खिलने को हुई  तत्पर
जहां मौसम में सावन है धरा का दोष   क्या    देना!!

मेरी किस्मत  मेरे   मुट्ठी  में  उसने   कैद   कर   भेजा...
न मुमकिन प्यार पाना है खुदा का  दोष   क्या  देना!!

हरेक  अरमान   के  भट्टी  में  मैं  जलता  रहा  दीपक
कि अब खुद थक चुका हूं मैं हवा का दोष क्या देना।।

©दीपक झा रुद्रा

वो पीने से ही चढ़ती है नशा का दोष क्या देना? जो मंजिल याद ही न हो पता का दोष क्या देना? कभी घायल हुए जुगनू से मत बोलो दिखा राहें पतंगा खुद जला है फिर दिया का दोष क्या देना!! खुदी बिगड़ा हूं उल्फत के नशीले दौड़ में मैं तो नहीं मां का कभी माना पिता का दोष क्या देना!! यहां गुल ही अड़ी नाहक न खिलने को हुई तत्पर जहां मौसम में सावन है धरा का दोष क्या देना!! मेरी किस्मत मेरे मुट्ठी में उसने कैद कर भेजा... न मुमकिन प्यार पाना है खुदा का दोष क्या देना!! हरेक अरमान के भट्टी में मैं जलता रहा दीपक कि अब खुद थक चुका हूं मैं हवा का दोष क्या देना।। ©दीपक झा रुद्रा

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