White यूं तो स्त्रियां सजाती संभालती है बनाती है ई | हिंदी कविता

"White यूं तो स्त्रियां सजाती संभालती है बनाती है ईंट पत्थर के मकान को घर संजोती है रिश्ते उसमे पकाती है खुशियों की मिठास गमों को मुस्कान के साथ विदा करके नहीं आने देती अपने घर पर कभी कोई आंच पर क्या सभी स्त्रियां ऐसी ही होती है बेशक नहीं.... कुछ ऐसी भी होती है जो कर देती है अपने ही घर को बंजर,नफरत के बीज बो कर शब्दों की बंदूक से वार करके डाल देती है हर रिश्ते में दरार उजाड़ देती है अपने ही घर की बगिया को करने देती है अपनी ही नींव को खोखला चंद दिखावों की दीमकों को क्यों आ जाती है वो सृजन से विनाश की और मिट्टी में मिला देती है,दो घरों की इज्जत अपने झूठे अहम और वहम की खातिर क्यों भूल जाती है वो अपना स्त्री होना क्यों भूल जाती हैं वो क्या होता है परिवार का होना क्यों करती है वो सब कुछ गलत करके भी रोना धोना क्या हो जायेगा उन्हें वो हासिल ऐसा करके जो वो चाहती है क्या उसके बाद उनके मन को संतुष्टि मिल पायेगी बिल्कुल नहीं ऐसी स्त्रियां मेरी नजर में न कभी खुद खुश रहेंगी और न किसी को खुश रख पाएंगी ©बादल(बरखा)"

 White यूं तो स्त्रियां सजाती संभालती है
बनाती है ईंट पत्थर के मकान को घर
संजोती है रिश्ते उसमे
पकाती है खुशियों की मिठास 
गमों को मुस्कान के साथ विदा करके 
नहीं आने देती अपने घर पर कभी कोई आंच 
पर क्या सभी स्त्रियां ऐसी ही होती है
बेशक नहीं....
कुछ ऐसी भी होती है जो कर देती है
अपने ही घर को बंजर,नफरत के बीज बो कर
शब्दों की बंदूक से वार करके
डाल देती है हर रिश्ते में दरार 
उजाड़ देती है अपने ही घर की बगिया को
करने देती है अपनी ही नींव को खोखला
चंद दिखावों की दीमकों को
क्यों आ जाती है वो सृजन से विनाश की और 
मिट्टी में मिला देती है,दो घरों की इज्जत 
अपने झूठे अहम और वहम की खातिर
क्यों भूल जाती है वो अपना स्त्री होना
क्यों भूल जाती हैं वो
क्या होता है परिवार का होना
क्यों करती है वो
सब कुछ गलत करके भी रोना धोना
क्या हो जायेगा उन्हें वो हासिल 
ऐसा करके जो वो चाहती है 
क्या उसके बाद उनके 
मन को संतुष्टि मिल पायेगी
बिल्कुल नहीं 
ऐसी स्त्रियां मेरी नजर में
न कभी खुद खुश रहेंगी
और न किसी को खुश रख पाएंगी

©बादल(बरखा)

White यूं तो स्त्रियां सजाती संभालती है बनाती है ईंट पत्थर के मकान को घर संजोती है रिश्ते उसमे पकाती है खुशियों की मिठास गमों को मुस्कान के साथ विदा करके नहीं आने देती अपने घर पर कभी कोई आंच पर क्या सभी स्त्रियां ऐसी ही होती है बेशक नहीं.... कुछ ऐसी भी होती है जो कर देती है अपने ही घर को बंजर,नफरत के बीज बो कर शब्दों की बंदूक से वार करके डाल देती है हर रिश्ते में दरार उजाड़ देती है अपने ही घर की बगिया को करने देती है अपनी ही नींव को खोखला चंद दिखावों की दीमकों को क्यों आ जाती है वो सृजन से विनाश की और मिट्टी में मिला देती है,दो घरों की इज्जत अपने झूठे अहम और वहम की खातिर क्यों भूल जाती है वो अपना स्त्री होना क्यों भूल जाती हैं वो क्या होता है परिवार का होना क्यों करती है वो सब कुछ गलत करके भी रोना धोना क्या हो जायेगा उन्हें वो हासिल ऐसा करके जो वो चाहती है क्या उसके बाद उनके मन को संतुष्टि मिल पायेगी बिल्कुल नहीं ऐसी स्त्रियां मेरी नजर में न कभी खुद खुश रहेंगी और न किसी को खुश रख पाएंगी ©बादल(बरखा)

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