लड़की हूं, इसलिए हर साल सुर्खी बनती हूं,
सरकारें आती हैं जाती हैं,
दस्तूर ए जहां, सत्ता, सत्ता ही रह जाती है,
कभी कलकत्ता, कभी मनाली न जाने कितनी हैं बिगड़ी,
कितने आशियानों की रमजान, होली , दिवाली,
हक का कहां मिला मुझे,
दस्तूर ए जहां, आज इसने तो कल उसने सबने वादें किए मुझसे...
यही रीत ज़माने की लड़ता हैं वह खुद के लिए ,
काश एक बार निकलता वह खुदसे और लड़ता मेरे लिए।
©Bhanu Priya
#दस्तूर_ए_वक़्त दस्तूर
लड़की हूं,इसलिए हर साल सरखी बनती हूं,
सरकारें आती हैं जाती हैं,
दस्तूर ए जहां, सत्ता, सत्ता ही रह जाती है,
कभी कलकत्ता, कभी मनाली न जाने कितनी हैं बिगड़ी,
कितने आशियानों की रमजान, होली , दिवाली,
हक का कहां मिला मुझे,