--- स्री
वो सड़क पर चलती हुई,
चौराहे पर खड़ी हुई,
वो लड़की, माता, पत्नी,
दादी, नानी, भाभी—
वो औरत।
हर नाम के पीछे
खुद को ढालती हुई।
सजती, सजाती घर-आंगन,
बेटा, बेटी, पति, ससुर, सास—
परिवार का ख्याल रखती हुई।
भूल जाती है खुद को,
हंसती, बिलखती,
कभी खिलखिलाती हुई,
झरने की तरह
बहती हुई वो।
बंध गई कहीं बंधनों में,
खुद को भुलाकर,
खामोश परिंदे की तरह।
क्यों चुप है वो?
एक चौक में खड़ी मूर्ति
की तरह बस सहती है,
पीती है
सारे ग़म।
©surajkumaregoswami