किताबों पर धूल
किताबों पर धूल जम जाने से
कहानियां खत्म नहीं होती,
वे पन्नों के बीच छुपी हुई
अब भी ज़िंदा होती हैं।
अधूरी सांसें, बिखरे ख्वाब,
और उन लफ्जों का वजूद,
हर एक अक्षर में बसे होते हैं
सदियों के अनगिनत राग।
धूल का ये पर्दा शायद
छुपा ले कुछ यादों को,
पर जब कोई हाथ बढ़ाता है,
हर किरदार फिर मुस्कुराता है।
कभी एक बच्चे की आंखों में
सपनों की नई चमक सी,
तो कभी किसी बूढ़े के मन में
बीत चुकी बातें फिर से ताज़ा सी।
किताबें यूँ ही नहीं मिटती,
उनमें दर्ज होती हैं ज़िंदगियाँ,
जो वक्त की गर्द में भी
हमेशा अनसुनी, अनछुई रहती हैं।
कहानियां खत्म नहीं होतीं,
वो बस इंतज़ार करती हैं,
एक नए सफर, एक नई आँख,
और एक नए मन की।
©Writer Mamta Ambedkar
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