वो
अल्हड़ मिट्टी के
कुल्हड़ों में भर कर
चाय सा इश्क
पिया करते हैं...
फेंक देते हैं फिर
तिल-तिल कुचले जाने को...
कुछ बांधकर रख लिये जाते हैं
घर सजाये जाने के लिए
कुछ शामिल कर लिए जाते हैं
घर के खिलौनों में या चूल्हे चौकों में..
कुछ कबाड़ में पड़े कुल्हड़
जिनके इश्क की चाय सूख चुकी है
सहेज कर सारी ताकत, बेपरवाही से
निकल पड़ते हैं धूप में
पक्षियों के लिए दाना-पानी सहेजने
और कुछ करते रहते हैं इंतज़ार
बहती नालियों में पड़े-पड़े,
किसी चमत्कार का
हर इश्क का अंत अलग होता है।
©'नीर'🍁
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