दिए जख्म इतने ,जो वापिस न किए तो कर्ज कैसा, वो ही | हिंदी शायरी

"दिए जख्म इतने ,जो वापिस न किए तो कर्ज कैसा, वो ही दर्द दे सिर्फ मुझको,मैं सहूं ये भी फर्ज कैसा ! टूटे बिखरे लोगों के दर्द न जान पाए,तो इंसान कैसा, अटूट विश्वास से बना घर,क्षणिक टूट जाए मकान कैसा! आए न महक किसी फूल से, तो वो फूल कैसा, खुद ही बना के तोड़ दिया,तो यह असूल कैसा ! जहां महजब और पानी की नस्ल अलग, वो स्कूल कैसा, किसी को इतना चाह कर छोड़ देना,ये रूल कैसा ! ©Thakur Vivek Krishna"

 दिए जख्म इतने ,जो वापिस न किए तो कर्ज कैसा,
वो ही दर्द दे सिर्फ मुझको,मैं सहूं ये भी फर्ज कैसा !

टूटे बिखरे लोगों के दर्द न जान पाए,तो इंसान कैसा, 
अटूट विश्वास से बना घर,क्षणिक टूट जाए मकान कैसा!

आए न महक किसी फूल से, तो वो फूल कैसा, 
खुद ही बना के तोड़ दिया,तो यह असूल कैसा !

जहां महजब और पानी की नस्ल अलग, वो स्कूल कैसा,
किसी को इतना चाह कर छोड़ देना,ये रूल कैसा !

©Thakur Vivek Krishna

दिए जख्म इतने ,जो वापिस न किए तो कर्ज कैसा, वो ही दर्द दे सिर्फ मुझको,मैं सहूं ये भी फर्ज कैसा ! टूटे बिखरे लोगों के दर्द न जान पाए,तो इंसान कैसा, अटूट विश्वास से बना घर,क्षणिक टूट जाए मकान कैसा! आए न महक किसी फूल से, तो वो फूल कैसा, खुद ही बना के तोड़ दिया,तो यह असूल कैसा ! जहां महजब और पानी की नस्ल अलग, वो स्कूल कैसा, किसी को इतना चाह कर छोड़ देना,ये रूल कैसा ! ©Thakur Vivek Krishna

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