आघातों पर मौन रही, दंशों कों सभी स्वीकार किया मैं | हिंदी मोटिवेशनल

"आघातों पर मौन रही, दंशों कों सभी स्वीकार किया मैं नारी हु,जब उठा प्रश्न निष्ठा पर,तब,प्रतिकार किया मैं शांत रही कष्टों में भी,मूक रही,मै तपी कर्मयोगिनी जैसे गगन तलक विस्तार किया जब बात चरित्र पर आई,मै बनी कालिका,हुंकार किया मैं रणचंडी बन कर गरजी,दुर्जन सब संहार किया मैं नारी हु,मेरा क्या है,मैंने बस उपकार किया मेरी देह से जन्मा जो,वो मानुष पाठ सिखाता हैं मैं हु निर्बल,और स्वयं को सबल बड़ा बतलाता है मैं रही मौन,मूर्ति जैसी,मुस्कान लिए,स्वीकार किया बात स्वाभिमान पर आई तो मैने सब का,परित्याग किया मैं नारी हु,इस सृष्टि ने मुझ से कितना संवाद किया मैं रही जनक सूता जैसी,कई वर्षों तक इंतेज़ार किया जब जब मुझ पर हैं प्रश्न उठे,अग्निस्नान सहर्ष,स्वीकार किया मैं रही विवश,अहिल्या सी,तुलसी सा धैर्य हर बार धरा मैं सती,बने तप लीन रही,कई वर्षों तक वियोग स्वीकार किया मैं स्मृतियों तक में शेष नहीं,नहीं, मेरा कोई भेष नहीं मैं रामचंद्र सी श्रेष्ठ नहीं,शिव सा तेज नहीं मुझ में मैं,निर्मल कोमल काया सी,मैं,दीप्तिमान भी माया सी मैं भोली भाली सबरी सी,मैं हु प्रचंड,काली जैसी मैं महाकाल का काल स्वरूप,मैं रौद्र रूप,विकराल अनूप तुम मुझ से स्नेह जताओगे,निर्मल स्वरूप ही पाओगे तुम जब जब प्रश्न उठाओगे,प्रत्युत्तर भी तो पाओगे मुझ को मत समझो तुम श्रेष्ठ सही,तुम पूज्यनीय,तुम ज्येष्ठ सही मैं गंगा जैसी तरिणी हु,मैं तपोभूमि की वरिणी हु मैं सफ़ल कर्म का ध्येय लिए,नित नए विरल में जलती हु मैं हु अनंत आकाश जैसी,मै सागर जैसी गहरी हु मैं मैल नहीं रखती मन में,मै सरिता कल-कल बहती हु तुम कितने शूल बिछाओगे,मुझ को चलता ही पाओगे तुम रचो नए पर्याय रचो,आओ एक नया अध्याय रचो तुम अर्चनीय मत मानो फ़िर, हु वंदनीय ना जानो फ़िर मैं हु मनुष्य पहचानो फ़िर,अधिकार मेरे मुझ को दे दो मैं सहज प्रेम प्रतीता सी,मै पावन बिल्कुल गीता सी ना मुझ को देना हो कोई प्रमाण ना प्रश्न उठे बन के यू, बाण,ना होना हो मुझ को पाषाण ये कीर्तिमान कर जाओ फिर,तुम शक्तिमान हो..??? ,बतलाओ फ़िर यू मौन धरे ना बैठो फ़िर,उठो पार्थ प्रतिकार करो,ना नियति यू,स्वीकार करो मैं ज्वाला जैसी हु ज्वलंत, कर सकती हु कितना विध्वंश, मुझ पर प्रण का तो त्याग नहीं,स्वाभिमान का परित्याग नहीं मैं छोटा कोई कंकर हु,जो अड़ी स्वयं फिर शंकर हु मेरा अस्तित्व मिटाने को,कई युग बीतेंगे जाने को होगा सृष्टि का अंत तभी,जब नारी भी मर जाएगी ये कोपल कोमल सुंदर रुपा,अत्यंत विकराल हो जाएगी काव्यों का सौन्दर्य भी मै,जीवन का तप और अर्थ भी अरे,अट्टहास सा आता है,मैं हु समर्थ,और व्यर्थ भी मै...... ©ashita pandey बेबाक़"

 आघातों पर मौन रही, दंशों कों सभी स्वीकार किया
मैं नारी हु,जब उठा प्रश्न निष्ठा पर,तब,प्रतिकार किया 
मैं शांत रही कष्टों में भी,मूक रही,मै तपी कर्मयोगिनी जैसे
गगन तलक विस्तार किया
जब बात चरित्र पर आई,मै बनी कालिका,हुंकार किया
मैं रणचंडी बन कर गरजी,दुर्जन सब संहार किया
मैं नारी हु,मेरा क्या है,मैंने बस उपकार किया
मेरी देह से जन्मा जो,वो मानुष पाठ सिखाता हैं 
मैं हु निर्बल,और स्वयं को सबल बड़ा बतलाता है 
मैं रही मौन,मूर्ति जैसी,मुस्कान लिए,स्वीकार किया
बात स्वाभिमान पर आई तो मैने सब का,परित्याग किया
मैं नारी हु,इस सृष्टि ने मुझ से कितना संवाद किया
मैं रही जनक सूता जैसी,कई वर्षों तक इंतेज़ार किया
जब जब मुझ पर हैं प्रश्न उठे,अग्निस्नान सहर्ष,स्वीकार किया
मैं रही विवश,अहिल्या सी,तुलसी सा धैर्य हर बार धरा 
मैं सती,बने तप लीन रही,कई वर्षों तक वियोग स्वीकार किया
मैं स्मृतियों तक में शेष नहीं,नहीं, मेरा कोई भेष नहीं
मैं रामचंद्र सी श्रेष्ठ नहीं,शिव सा तेज नहीं मुझ में
मैं,निर्मल कोमल काया सी,मैं,दीप्तिमान भी माया सी
मैं भोली भाली सबरी सी,मैं हु प्रचंड,काली जैसी
मैं महाकाल का काल स्वरूप,मैं रौद्र रूप,विकराल अनूप
तुम मुझ से स्नेह जताओगे,निर्मल स्वरूप ही पाओगे
तुम जब जब प्रश्न उठाओगे,प्रत्युत्तर भी तो पाओगे
मुझ को मत समझो तुम श्रेष्ठ सही,तुम पूज्यनीय,तुम ज्येष्ठ सही
मैं गंगा जैसी तरिणी हु,मैं तपोभूमि की वरिणी हु
मैं सफ़ल कर्म का ध्येय लिए,नित नए विरल में जलती हु
मैं हु अनंत आकाश जैसी,मै सागर जैसी गहरी हु
मैं मैल नहीं रखती मन में,मै सरिता कल-कल बहती हु
तुम कितने शूल बिछाओगे,मुझ को चलता ही पाओगे
तुम रचो नए पर्याय रचो,आओ एक नया अध्याय रचो 
तुम अर्चनीय मत मानो फ़िर, हु वंदनीय ना जानो फ़िर 
मैं हु मनुष्य पहचानो फ़िर,अधिकार मेरे मुझ को दे दो
मैं सहज प्रेम प्रतीता सी,मै पावन बिल्कुल गीता सी
ना मुझ को देना हो कोई प्रमाण
ना प्रश्न उठे बन के यू, बाण,ना होना हो मुझ को पाषाण 
ये कीर्तिमान कर जाओ फिर,तुम शक्तिमान हो..???
,बतलाओ फ़िर 
यू मौन धरे ना बैठो फ़िर,उठो पार्थ प्रतिकार करो,ना नियति यू,स्वीकार करो
मैं ज्वाला जैसी हु ज्वलंत, कर सकती हु कितना विध्वंश,
मुझ पर प्रण का तो त्याग नहीं,स्वाभिमान का परित्याग नहीं
मैं छोटा कोई कंकर हु,जो अड़ी स्वयं फिर शंकर हु
मेरा अस्तित्व मिटाने को,कई युग बीतेंगे जाने को
होगा सृष्टि का अंत तभी,जब नारी भी मर जाएगी
ये कोपल कोमल सुंदर रुपा,अत्यंत विकराल हो जाएगी
काव्यों का सौन्दर्य भी मै,जीवन का तप और अर्थ भी
अरे,अट्टहास सा आता है,मैं हु समर्थ,और
व्यर्थ भी मै......

©ashita pandey  बेबाक़

आघातों पर मौन रही, दंशों कों सभी स्वीकार किया मैं नारी हु,जब उठा प्रश्न निष्ठा पर,तब,प्रतिकार किया मैं शांत रही कष्टों में भी,मूक रही,मै तपी कर्मयोगिनी जैसे गगन तलक विस्तार किया जब बात चरित्र पर आई,मै बनी कालिका,हुंकार किया मैं रणचंडी बन कर गरजी,दुर्जन सब संहार किया मैं नारी हु,मेरा क्या है,मैंने बस उपकार किया मेरी देह से जन्मा जो,वो मानुष पाठ सिखाता हैं मैं हु निर्बल,और स्वयं को सबल बड़ा बतलाता है मैं रही मौन,मूर्ति जैसी,मुस्कान लिए,स्वीकार किया बात स्वाभिमान पर आई तो मैने सब का,परित्याग किया मैं नारी हु,इस सृष्टि ने मुझ से कितना संवाद किया मैं रही जनक सूता जैसी,कई वर्षों तक इंतेज़ार किया जब जब मुझ पर हैं प्रश्न उठे,अग्निस्नान सहर्ष,स्वीकार किया मैं रही विवश,अहिल्या सी,तुलसी सा धैर्य हर बार धरा मैं सती,बने तप लीन रही,कई वर्षों तक वियोग स्वीकार किया मैं स्मृतियों तक में शेष नहीं,नहीं, मेरा कोई भेष नहीं मैं रामचंद्र सी श्रेष्ठ नहीं,शिव सा तेज नहीं मुझ में मैं,निर्मल कोमल काया सी,मैं,दीप्तिमान भी माया सी मैं भोली भाली सबरी सी,मैं हु प्रचंड,काली जैसी मैं महाकाल का काल स्वरूप,मैं रौद्र रूप,विकराल अनूप तुम मुझ से स्नेह जताओगे,निर्मल स्वरूप ही पाओगे तुम जब जब प्रश्न उठाओगे,प्रत्युत्तर भी तो पाओगे मुझ को मत समझो तुम श्रेष्ठ सही,तुम पूज्यनीय,तुम ज्येष्ठ सही मैं गंगा जैसी तरिणी हु,मैं तपोभूमि की वरिणी हु मैं सफ़ल कर्म का ध्येय लिए,नित नए विरल में जलती हु मैं हु अनंत आकाश जैसी,मै सागर जैसी गहरी हु मैं मैल नहीं रखती मन में,मै सरिता कल-कल बहती हु तुम कितने शूल बिछाओगे,मुझ को चलता ही पाओगे तुम रचो नए पर्याय रचो,आओ एक नया अध्याय रचो तुम अर्चनीय मत मानो फ़िर, हु वंदनीय ना जानो फ़िर मैं हु मनुष्य पहचानो फ़िर,अधिकार मेरे मुझ को दे दो मैं सहज प्रेम प्रतीता सी,मै पावन बिल्कुल गीता सी ना मुझ को देना हो कोई प्रमाण ना प्रश्न उठे बन के यू, बाण,ना होना हो मुझ को पाषाण ये कीर्तिमान कर जाओ फिर,तुम शक्तिमान हो..??? ,बतलाओ फ़िर यू मौन धरे ना बैठो फ़िर,उठो पार्थ प्रतिकार करो,ना नियति यू,स्वीकार करो मैं ज्वाला जैसी हु ज्वलंत, कर सकती हु कितना विध्वंश, मुझ पर प्रण का तो त्याग नहीं,स्वाभिमान का परित्याग नहीं मैं छोटा कोई कंकर हु,जो अड़ी स्वयं फिर शंकर हु मेरा अस्तित्व मिटाने को,कई युग बीतेंगे जाने को होगा सृष्टि का अंत तभी,जब नारी भी मर जाएगी ये कोपल कोमल सुंदर रुपा,अत्यंत विकराल हो जाएगी काव्यों का सौन्दर्य भी मै,जीवन का तप और अर्थ भी अरे,अट्टहास सा आता है,मैं हु समर्थ,और व्यर्थ भी मै...... ©ashita pandey बेबाक़

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