चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका, ख़्वाबों का काफ़ | हिंदी शायरी

"चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका, ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका। मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत, जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका। ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर, पर दर्द था जो, दिल से ज़ाहिर न हो सका। हर ग़म को सीने से लगाया ख़ुशी समझ, मगर वो, हक़ीक़तों में क़ाबिल न हो सका। अरमान थे चाँद छूने के, मगर ऐ दिल, जो पास था भी, वो हासिल न हो सका। ©नवनीत ठाकुर"

 चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका,
ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका।

मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत,
जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका।

ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर,
पर दर्द था जो, दिल से ज़ाहिर न हो सका।

हर ग़म को सीने से लगाया ख़ुशी समझ,
मगर वो, हक़ीक़तों में क़ाबिल न हो सका।

अरमान थे चाँद छूने के, मगर ऐ दिल,
जो पास था भी, वो हासिल न हो सका।

©नवनीत ठाकुर

चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका, ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका। मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत, जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका। ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर, पर दर्द था जो, दिल से ज़ाहिर न हो सका। हर ग़म को सीने से लगाया ख़ुशी समझ, मगर वो, हक़ीक़तों में क़ाबिल न हो सका। अरमान थे चाँद छूने के, मगर ऐ दिल, जो पास था भी, वो हासिल न हो सका। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीतठाकुर
चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका,
ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका।

मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत,
जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका।

ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर,

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