चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका,
ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका।
मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत,
जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका।
ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर,
पर दर्द था जो, दिल से ज़ाहिर न हो सका।
हर ग़म को सीने से लगाया ख़ुशी समझ,
मगर वो, हक़ीक़तों में क़ाबिल न हो सका।
अरमान थे चाँद छूने के, मगर ऐ दिल,
जो पास था भी, वो हासिल न हो सका।
©नवनीत ठाकुर
#नवनीतठाकुर
चाहा था हासिल, वो हासिल न हो सका,
ख़्वाबों का काफ़िला, मुक़म्मल न हो सका।
मंज़िल की आरज़ू में सफ़र तो किया बहुत,
जज़्बात का समंदर, साहिल न हो सका।
ज़ख़्मों ने मुझे सीखा दिया सब्र का हुनर,