मैं कवि हूं
मैं कवि हूं
हां में कवि हूं
जो इच्छाओं को अपनी दबाकर
उसको कागज पर उतारकर
अपनी पीड़ा कम करता हूं
मैं कवि हूं
जिंदगी बुल बुलों जैसी हो गई
कभी उठती कभी गिरती गई
एक अजीब कहानी हो गई
कुछ समझ न आए ऐसी पहेली हो गई
उन एहसासों को कागज पर उतारता हूं
मैं कवि हूं
जब बुरे बुरे भाव
करते हैं मन पर घाव
एक टीस उठ जाती है
जो असफलता हुई दिखा जाती है
उस असफलता को कागज पर उतारता हूं
मैं कवि हूं
दर्द जब हद से ज्यादा बढ़ जाता है
कष्ट का पारा बढ़ जाता है
कब पंछी उड़ जाए पिंजरे से
और पिंजरा खाली रह जाए पंछी से
उस खालीपन को कागज पर उतारता हूं
मैं कवि हूं
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देवेश दीक्षित
©Devesh Dixit
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मैं कवि हूंँ
मैं कवि हूंँ
हांँ में कवि हूंँ
जो इच्छाओं को अपनी दबाकर
उसको कागज पर उतारकर