एक चिरैया शाम छत पे बैठने आई
शांत मन सुनती मुझे, कुछ चहकने आई,
कि वो बोले एक उड़ान, क्यों तुम नहीं भरते
यार तुम अब हंसते, पहले से नहीं लगते,
एक किसी दिन फिर चलो गर साथ तुम मेरे
आओ तुमको वहां दिखाऊं पास जो मेरे,
ये कि पीछे उस पहाड़ी पे घना जंगल
तेरे मेरे जैसे कितनों का वही उपवन,
जिसमें खिलती रोशनी तुमको उजारेगी
जिसमें जुगनू की चमक तुमको संवारेगी,
मैं कहीं चुप चाप टूटा सुन रहा था सब
अब के होता ना यकीन, इंसान हो या रब,
अब तो सूरज देख, ये भी ख़्याल आते हैं
वो भी सुबह संग, सांझ तक छूट जाते हैं,
कहते हैं जब कांच टूटे जुड़ ना पाते हैं
हम वो बिखरे पक्षी हैं, उड़ना ना चाहते हैं ।
©Shivam Nahar
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