Unsplash हाथों की लकीरें कब माथे की सलवटें बन गई | हिंदी Poetry

"Unsplash हाथों की लकीरें कब माथे की सलवटें बन गई , पता ही न चला। जीने आए थे जिन्दगी बे उसूलों से,बे हिसाब से, कब किश्तों में गुजर गई, पता ही न चला उलझनों के दायरे से कोई राहत का धागा  तो होता, कितनी  गांठे लगती गई रिश्तों में, पता ही न चला।                  Mona pareek ©Mona Pareek"

 Unsplash  हाथों की लकीरें कब माथे की सलवटें बन गई ,
पता ही न चला।
जीने आए थे जिन्दगी बे उसूलों से,बे हिसाब से,
कब किश्तों में गुजर गई, पता ही न चला 
उलझनों के दायरे से कोई राहत का धागा  तो होता,
कितनी  गांठे लगती गई रिश्तों में, पता ही न चला।
                 Mona pareek

©Mona Pareek

Unsplash हाथों की लकीरें कब माथे की सलवटें बन गई , पता ही न चला। जीने आए थे जिन्दगी बे उसूलों से,बे हिसाब से, कब किश्तों में गुजर गई, पता ही न चला उलझनों के दायरे से कोई राहत का धागा  तो होता, कितनी  गांठे लगती गई रिश्तों में, पता ही न चला।                  Mona pareek ©Mona Pareek

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