प्रंशसा चाहे कितनी भी करो किन्तु अपमान बहुत ही सोच | हिंदी विचार

"प्रंशसा चाहे कितनी भी करो किन्तु अपमान बहुत ही सोच-समझकर करना चाहिये क्योंकि अपमान वो ऋण है.. जो हर कोई अवसर मिलने पर ब्याज सहित चुकाता अवश्य है..!"

 प्रंशसा चाहे कितनी भी करो
किन्तु अपमान बहुत ही सोच-समझकर करना चाहिये
क्योंकि अपमान वो ऋण है..
जो हर कोई अवसर मिलने पर ब्याज सहित चुकाता अवश्य है..!

प्रंशसा चाहे कितनी भी करो किन्तु अपमान बहुत ही सोच-समझकर करना चाहिये क्योंकि अपमान वो ऋण है.. जो हर कोई अवसर मिलने पर ब्याज सहित चुकाता अवश्य है..!

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