कविता - परवरिश कटघरे में
परवरिश पर प्रश्न बड़ा ये खड़ा है,
आदमी अपने दम्भ में अड़ा है
बेटे व्यभिचार में, बेटियां प्यार में ,किन्नर तिरस्कार में
रिश्तेदार दिखावे में, समाज बहकावे में ,
परत दर परत सब बिखरता जा रहा है
संस्कारों का पुश्तैनी वृक्ष सूखता जा रहा है।
परवरिश पर प्रश्न बड़ा ये खड़ा है....
ये विकास बड़े गजब का है
युवा पब,डिस्को में, पेरेंट्स किश्तों में
स्कूल वसूली और रैंकिंग में समाज सम्मान और मोमेंटों में
गजब नशे में सब लिपटता जा रहा है
संस्कृति का ह्रास होता जा रहा है
परवरिश पर प्रश्न बड़ा ये खड़ा है।
रिश्तों में प्यार भी कितना खरा है?
प्रेमी युगल न्यायालय में , बुजुर्ग वृद्धालय में ,
बच्चे क्रेच में , किशोर क्रश में , संवेदनशील लोग स्ट्रेस में
प्रोग्रेस के ग्राफ में सब सिमटता जा रहा है
दिलों को हमारे ये कचोटता जा रहा है
परवरिश पर प्रश्न बड़ा ये खड़ा है
जहां जन-गण-मन अधिनायक ,वसुधैव कुटुम्बकम
जहां नार्येषु पूज्यंते और देवी शक्ति व मातृरूपेण हो
वहां स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार
सिमट गया है नग्नता, नशे और व्यभिचार में
आने वाले कल में कैसे कहेंगे ?
जय हो मात-पिता का
जय हो भारत भाग्य -विधाता।
शालिनी सिंह
©RJ SHALINI
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