चित्र भी विचित्र है
चित्त भी विचित्र है
इस चित्त के चल चित्र में विचित्र ये चित्र है
इस चित्र के इत्र से महक उठा मेरा चरित्र है
चरित्र ही मेरा मित्र है
मित्र भी विचित्र है
यह मित्र तो अत्र है यत्र है तत्र है सर्वत्र है
जो सर्वत्र है उसी के पवित्र चित्त में मेरा चित्र है ।।
©Himanshu Srivastava
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