कर्तव्यों से हाथ खींच, जब रहमत पे इतराते हैं परवश | हिंदी कविता

"कर्तव्यों से हाथ खींच, जब रहमत पे इतराते हैं परवश छांव की राह देख, सहमत होते जाते हैं। सकुचाते संवाद से, खुद अपनी ही फ़रियाद से आडंबर से लगे कभी, वो बरबस होते जाते हैं। गिर जाने, मुरझाने से, ना दिखे तो वो है क्षीणता आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता। भ्रम सरीखा दरिया है, समझ गए तो बढ़िया है उत्पत्ति के मूल भाव में, सर्वप्रधान नज़रिया है। अंजानी पहचान , खुद से पाले अभिमान बहुत पूर्वाग्रह रहीत राहें, सबल निर्माण का जरिया है। चेहरे पे सारे रंग हों , ना हो तो , वो है दीनता आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता।"

 कर्तव्यों से हाथ खींच, जब रहमत पे इतराते हैं
परवश छांव की राह देख, सहमत होते जाते हैं।
सकुचाते संवाद से, खुद अपनी ही फ़रियाद से
आडंबर से लगे कभी, वो बरबस होते जाते हैं।

गिर जाने, मुरझाने से, ना दिखे तो वो है क्षीणता
आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता।

भ्रम सरीखा दरिया है, समझ गए तो बढ़िया है
उत्पत्ति के मूल भाव में, सर्वप्रधान नज़रिया है।
अंजानी पहचान , खुद से पाले अभिमान बहुत
पूर्वाग्रह रहीत राहें, सबल निर्माण का जरिया है।

चेहरे पे सारे रंग हों , ना हो तो , वो है दीनता
आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता।

कर्तव्यों से हाथ खींच, जब रहमत पे इतराते हैं परवश छांव की राह देख, सहमत होते जाते हैं। सकुचाते संवाद से, खुद अपनी ही फ़रियाद से आडंबर से लगे कभी, वो बरबस होते जाते हैं। गिर जाने, मुरझाने से, ना दिखे तो वो है क्षीणता आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता। भ्रम सरीखा दरिया है, समझ गए तो बढ़िया है उत्पत्ति के मूल भाव में, सर्वप्रधान नज़रिया है। अंजानी पहचान , खुद से पाले अभिमान बहुत पूर्वाग्रह रहीत राहें, सबल निर्माण का जरिया है। चेहरे पे सारे रंग हों , ना हो तो , वो है दीनता आजादी की जब बात करो, हो रग रग में स्वाधीनता।

स्वाधीनता

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