जीवन और लोहे की कहानी
इंसान कोई जैसे कच्चा लोहा,
न ही कोई कीमत, न कोई शोभा।
कारीगर ने जब पाया उसे,
ठोंक-पीट बढ़ाई उसकी शोभा।
ज़िंदगी बनी कारीगर इंसान की,
मुश्किलों से लड़, बढ़ती गई आभा।
लोहा लड़ता नमी, कुदरत और बेगारी से,
तब बनकर रहता वो एक कीमती आभा।
इंसान लड़ता खुद से, समाज से,
और अपने खालीपन से,
तब बनता वो इंसान,
एक अलौकिक स्वर्णाभा।
घिर गया यदि लोहा किसी बेईमानी में,
टूटकर तिल-तिल खोता अपनी प्रतिष्ठित कर्माभा।
उसी प्रकार इंसान, इंद्रियों के जाल में फंसकर,
बनता वो एक निष्क्रिय, जर्जर पहलू की आभा।
चाहे इंसान हो,
या निर्जीव सा दिखता हो ये लोहा,
बिन संरक्षण रे बनारसी,
मिटती सबकी शोभा।
लेखक - बनारसी
©Banarasi..
"जीवन और लोहे की कहानी: संघर्ष से स्वर्णिम आभा तक"
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