ग़ज़ल
हमारा इश्क़ किसी की समझ मे आ न सका
कि हफ़्ते भर से ज़ियादा कोई निभा न सका
मेरे लिए जो हर इक दुख उठाना चाहता था
पड़ा जो वक़्त तो वो फोन भी उठा न सका
कहाँ तो सोचा था सीने से लग के रोना है
मिला तो हाल भी अपना उसे सुना न सका
वो जिस की चोट पे आँसू बहा रहे थे हम
हमारी मौत का मंज़र उसे रुला न सका
कटी जो शाख़ शजर से तो फिर हरी न हुई
मैं टूटे दिल से कोई फूल भी खिला न सका
©Rehan Mirza
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