रास्तों से गुजरती सुनसान राते
सिसक पड़ा मन याद कर मरहुमियत की बाते,
बंद आंखों से सुनना कभी ये सिसकियां
ऐसे जैसे किसी दुखियारी की लोरिया,
बेचैन न कर दे तुम्हे तुम्हारे सपनो में
तुम भी न मरहूम पाओ खुद को अपनो में।
जीना भूल गए जैसे ज़िंदगी के गीत सारे है
ढूंढो ज़रा इनमे कौन तुम्हारे है,
राते मुस्कुरा भी लेती है आंखें बचा के सबकी
अपने मुस्कुराने का मतलब न निकल आए कही,
वैसे अंधेरे में हर राज़ चुप जाता है
इसलिए तबस्सुम से टपकता दर्द भी कहा दिखता है,
ये मुस्कुराहट देख कोई बदनाम न कर जाए
अपना दर्द इस रात के नाम न कर जाए,
अब तो रात भी डरती है कही न कही इस बात से
इसलिए चुपके से गुज़र जाती है रात में।।
©Rahul Roy 'Dev'
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