बातें करनी थी तुमसे बहुत सारी,इतनी कि बाकी की ज़िंदगी उनके सहारे काट सकूं।जब मिला था तुमसे तो नहीं जानता था कि ये आख़िरी बार है वरना सहेज लेता सब..जो तुमने कहा किया पर अफ़सोस कि तुम्हारी आवाज़ का एक क़तरा भी नहीं चुरा पाया।तुम्हारे होठों की हरकतें रह गयीं उसी पल में बात शुरु करने में तुम्हारी झिझक,तुम्हारी पेशानी पर पड़ते बल और बालों में तुम्हारा वो हाथ फेरना सहेज नहीं पाया।ख़ुद को हिम्मत देते हुए मेरी उस नीली टी शर्ट की बाहों को जो मोड़ा था तुमने,मुझे वो सिलवटें तो रख लेनी चाहिए थी।वो जब फिर कभी न मिलने की बात कहते हुए तुम्हारा गला रुंध आया था और सांसे तेज़ हुई थीं।वो लम्हें तो रखने थे मुझे इस तसल्ली के लिए कि शायद तुम्हें भी दर्द हुआ हो।मेरा हाथ छोड़ वापस मुड़ते ही वो जो एक आंसू तुम्हारी बायीं आँख से गिरा था न जिसे तुमने आँख में तिनके का कसूर बताया था,वो मेरा पूरा समुंदर हो सकता था पर फिसलकर रह गया तुम्हारे होठों पर ही कोई भी निशानी भी तो नहीं रख पाया था तुम्हारी उस वक़्त अपनी बाकी उम्र के लिए।उस एक लम्हे का दु:ख इतना ज़्यादा था कि उसके बाद ज़िंदगी जीने की उम्मीद नहीं बची थी।पर अब जब याद करता हूं तो केवल शून्य मिलता है तुम्हारी यादों की जगह हैरानी सी होती है कि कैसे इतना वक़्त तुम्हारे साथ गुज़ारकर भी तुम्हारा कुछ भी नहीं छूटा मेरे पास।क्या तुम इतनी सफाई से सब समेट ले गये थे या मैं ही तुममें इतना डूबा रहा कि ये ख़याल तक नहीं आया?उसके बाद कभी देखा तो नहीं तुम्हें पर जो चेहरे का खाका तैयार किया था तुम्हारे चेहरे को छूकर, वो लम्स अब भूल चुकी हैं मेरी अंगुलियां अब कोई चेहरा सा नहीं बन पाता ख़यालों में जिससे तसल्ली कर लूँ।आदतें तुम्हारी अब भी याद हैं भुला नहीं कुछ भी और जो मेरे घर में उस गली में शहर में जो तुम्हारी मौजूदगी के निशां थे वे अब नए मकानों के बनने के बाद विकसित होते हुए शहर के साये में धुंधले होकर मिट चुके हैं तुम्हारे जाने के बाद कहाँ कहाँ नही ढूंढा हमने तुम्हें जब तुम नही मिले मैने उस शहर को ही छोड़ देना मुनासिब समझा बरसों बाद जब वापस आया तो सबसे पहले उस स्टेडियम में भी गया था उस गली उस घर जहां तुमसे आख़िरी मुलाकात हुई थी
शेष अगले अंक में
©Pawan Dvivedi
#ArabianNight वो भूल दास्ताँ