जब उसे चूड़ियों की खनक में शोर का अंदाजा होता हैं,
जब उसे पैरों की पायल बेड़ियां लगने लग जाती है,
तोड़ने लगती है रूढ़ियां जब उसके अस्तित्व को,
तब निकल जाती है वह रुढियों के जंजाल से,
तब वो निश्चय कर लेती है,
और उतर जाती है सामाजिक मैदान में
उतार फेंकती हैं शृंगार की परत को अपने चेहरे से,
बिना झिझकते कर लेती है,
अपने आप को तैयार समाज के लिये,
हाँ तब वो देवी हैं,
हाँ तब वो दुर्गा हैं,
हाँ तब वो काली हैं,
हाँ तब वो नारी है,
हाँ तब वो वंदनीय हैं,
कमज़ोर मत समझना उसे वह नव जीवन रच सकती हैं,
तो खुद का भी पुनर्जन्म कर सकतीं है!!
©शिवम् पण्डित
अंतर्राष्टीय महिला दिवस
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