कैसी उलझी लकीरे थी कैसी उलझी तकदीरें थी
न किसी को ख़बर थी की बन्द आंखों मे कैद कितनी बैचैनी थीं
खामोश जुबा थी मगर शोर से भरी थी
कैसा अकेलापन था
मगर शब्दों से घिरा अकेला मैं था
कहा कहा मैं कदम बढ़ता खुद के सहारे के लिए
कभी कदम लड़खड़ाता कभी मैं लड़खड़ाता
कैसी निगाहें बन चुकी थी
शक की कभी मैं खुद को छुपाता कभी खुद को बताता
कैसी कभी कभी होती बेबस राते थी
अकेली थी फिर भी मगर शोर से भरी थी
कैसी उलझी लकीरें थी कैसी उलझी तकदीरें थी।
©ekbarfir_official
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