क्यों रात में भी सबेर का राह तकते हो?
कर लिए सुबह का स्वागत बहुत,
चलो आज रात का भी स्वागत करते है
पर्दा हटा,खिड़की खोल धूप को सुबह भीतर बुलाते हो
चलो आज रात में यही बाहर सितारों के नीचे खाट बिछाते है
दिन की रोशनी में भागते है ख्वाबों के लिए,
क्या रात बस नींद में ख्वाब देखने के लिए है?
क्यों नहीं आज रात के अंधेरे में भी, कोई ख्वाब जगाते है?
चल पड़े हो उमंग लिए एक राह पर तुम भोर में,
फिर क्यों रात के अंधियारे से कतराते हो?
चल पड़े हो छोर पकड़ तुम धार की,
फिर क्यों चट्टानों के आने से घबराते हो?
जरूरी नहीं मुहाना दिन में ही पास आए,
फिर क्यों रात से तू हिचकिचाते हो
उजियारे में दौड़ते तो क्या बड़ा उत्कर्ष है,
चलो देखते है अंधियारे में कहां तक चल पाते हो
शाम ढलने से निराश हो जाते हो,
फिर रात ढलने का क्यों नहीं मातम मनाते हो?
उदयाचल ही उम्मीद की मापदंड नहीं,
क्यों नहीं रात को भी खुशियों कि इकाई बनाते हो
सुविधाओं में संभावनाएं तो होती ही है,
क्यों नहीं कमियों को भी उपलब्धियां बनाते हो?
दिनकर की खूबी सबको पता है,
क्यों नहीं शशि को ही जीत का आधार बनाते हो
दिन का बखान सब लोग करते है
क्यों नहीं रात से बतिया नया कुछ सीख जाते हो?
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