"White ये जो इतने ख्वाहिशें छोड़ कर जा रही हुँ
डर है की खुद से रुबरु हुई, तो बिखर ना जाऊं
इतने टुकड़े हैं,जो काँच के से नुकिले, मेरी चाहतों के
डर है की कहीं चुभे ना, गर ना समेट पाऊं
हुँ मनुष्य तो है भेद भाव क्यों,नारी हुँ पर बन्दिशें ना भाये
डर है कि समाज की चोट खा कर ,गर ना निखर पाऊं
जीवन के नाव के खवैया आप ही हैं मेरे माधव
डर है कि बीच मजधार में नाव से कुद ना जाऊं
©Aakriti Rai
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