"आज ज़मींदार के पास ज़मीन कम है,
और इंसान के पास इंसानियत।"
वक़्त की साज़िशों ने क्या खूब खेल खेला,
खेतों से मिट्टी छिनी, दिलों से रहम का मेला।
जमीनों की बंदिशें तंग होती गईं,
मगर इंसानियत की राहें तो कब की खोती गईं।
सोचता है हर शख्स दौलत में सब पा लूँगा,
पर अपने अंदर झांककर देखे, तो ख़ुद को कहाँ पाऊँगा।
ज़मींदार की ज़मीनें सिकुड़ गईं,
पर दिलों की दुनिया तो कब की उजड़ गईं।
अब कोई कर्ज़ चुकाए तो कोई रिश्ता,
फिर भी इंसान बिखरा हुआ है, और इंसानियत लापता।
©UNCLE彡RAVAN