कुछ धागे थे, धागों में
कुछ धागे थे, धागों में
नत्थें जा रहें थे ख्वाबों में
टूटी न कभी सूइयाँ वो बेरंग नज़र के
जो रातें तनहा हुईं थीं सुरंग - सी
ये दिल मेरा वही पर ठहर गया
कभी पूछा इससे तू कहाँ बेधड़ गया
चाँद की कटोरी से, कालिख मैंने पोंछ लिए
याद के सहारे मैंने, सूखी आँखों से रो लिए
मैं इस क़दर संजोएँ दर्द, जैसे आग के कोई लौ जले
चुभाते रहे हँसके ये, कि वो मेरे ही हमसफर है
क्यूँ करूँ जुदा उसे, जो साँसों में इस क़दर हैं
- मनोज कुमार
©Manoj Kumar
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